त्वरित टिप्पणी : प्रेम और श्रद्धा को समझाने के लिए बल की ज़रूरत क्यों ? पढ़ेंं , अनूप के. त्रिपाठी का लेख
December 2, 2016 4:05 am
अनूप के. त्रिपाठी
(लेखक सामाजिक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं )
आप जानते हैं कि हिंदी भारत की राजभाषा है,राष्ट्रभाषा नहीं! राष्ट्रप्रेम के ज्वार में डूबने उतराने से पहले क्या आप राष्ट्र के संकल्पना से परिचित होना उचित समझते हैं? एक देश और एक राष्ट्र में क्या अंतर है,और इनमें क्या साझा है? देश ईंट-गारे से बना घर हो सकता है पर राष्ट्र उस घर में रहने वाले लोगों की वह साझा संस्कृति व इसकी विरासत होती है जिनसे उस घर के लोग एक धागे की तरह बांधे हुए होते हैं।घर के लोगों को यह साझा विरासत समझायी जा सकती है,इस साझा संस्कृति और इसकी विरासत के प्रेम को थोपना हास्यास्पद लगता है। जिस देश का अन्न-जल खा पीकर हम देश और राष्ट्र के बारे में सोचने समझने लायक बनते हैं उस देश से प्रेम बेहद स्वाभाविक है।यह बहस का विषय नहीं।पर राष्ट्र क्या है,यह समझने समझाने के बाद यह समझा जा सकता है कि राष्ट्र व इसके प्रतीकों के प्रति प्रेम व श्रद्धा बल-प्रयोग के विषय नहीं हैं और अगर इन्हें बल प्रयोग का मोहताज़ समझा जा रहा है तो निश्चित समस्या कहीं और है,अधिक मूलभूत और अधिक गहरी! राष्ट्र की संकल्पना को समझ पाना स्वयं में ही राष्ट्र प्रेम की वजह बन सकती है।
संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्तियों और भूमिकाओं का पृथक्करण एवं उनका सम्मान बेहद महत्वपूर्ण है।इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन यदि विरुद्ध हो तो एक दुसरे पर हमले बोल दिए जाते हैं,जैसे यदा-कदा सरकार के मंत्री और अटॉर्नी जनरल उच्चतम न्यायालय को लक्ष्मण रेखा का पालन करने की नसीहत देते नजर आते हैं।पर यदि इस रेखा का उल्लंघन एक दुसरे के पक्ष में हो और उससे भूमिकाओं को लेकर भ्रम की स्थिति दिखे तो हमला कौन बोलेगा?
राष्ट्र और उससे जुड़े प्रतीकों की सर्वोच्चता और उनका सम्मान जिरह के मुद्दे नहीं,पर क्या इन प्रतीकों के सम्मान संरक्षित करने के बहाने कार्यपालिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के नाक घुसाने को सही माना जायेगा?राष्ट्र और इसके प्रतीकों का सम्मान और सुरक्षा व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के जिम्मे है,न्यायपालिका यह सुनिश्चित करे कि वो अवयव जिनसे राष्ट्र बनता है वो राष्ट्र व इसके तंत्र के बोझ तले दब के मरने ना पाएं,यही उचित है।यदि न्यायपालिका भी राष्ट्र व इसके तंत्रों का वजन मेन्टेन करने में व्यस्त हो गया तो फिर राष्ट्र के लोगों को राष्ट्र के वजन से बचाने की भूमिका कौन निभाएगा,यह गंभीर प्रश्न है!
राष्ट्र व इसके प्रतीकों के प्रति सम्मान व श्रद्धा की भावना क्या बल प्रयोग के मोहताज़ हैं?क्या हम स्कूलों में देश प्रेम की सीख व समझ पैदा करने में असफल हो रहे हैं? यदि हाँ,तो क्या इसका हल क्या यही है?प्रेम और श्रद्धा भी बल की भाषा में समझाए जायेंगे?क्या अभी भी हम एक देश से राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में हैं?क्या न्यायपालिका अपने नागरिकों और व्यवस्थापिका के प्रति अविश्वास की स्थिति में है?
संविधान निर्माण के बाद वर्षों के तमाम उठापटक के बाद न्यायपालिका और विधायिका इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसद ल,मूल-अधिकारों सहित संविधान में कोई भी बदलाव कर सकती है पर यह बदलाव संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए..साथ ही उच्चतम न्यायालय ने संविधान की मूल भावना को शब्द रूप देने से इनकार करते हुए केस के आधार पर इसकी व्याख्या सुरक्षित कर ली।वास्तव में उच्चतम न्यायालय राष्ट्र की इसी मूल भावना की व्याख्या और इसके आलोक में तंत्र से लोक की रक्षा हेतु अपनी भूमिका के लिए विद्यमान है,अब अज्ञात कारणों से उच्चतम न्यायालय को तंत्र की भाषा बोलते देख ससंकित होना अनुचित नहीं लगता।सिनेमाहाल वाला निर्णय यदि सरकार की तरफ से आया होता और उच्चतम न्यायालय इसकी पुनरीक्षा करके इसे उचित अनुचित बताता तो कहीं उचित लगता।
( ये लेखक के विचार हैं )