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फ्री अर्थव्यवस्था की सचाई ! पढ़ें स्तम्भकार अनूप के. त्रिपाठी का आलेख

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अनूप के. त्रिपाठी

प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि, इतिहास और वर्तमान में भारत अकेला ऐसा देश है जो अशिक्षित/अर्धशिक्षित और अस्वस्थ कामगारों के बूते ‘महाशक्ति’ बनने का प्रयास कर रहा है। आम नागरिकों की वित्तीय जागरूकता और शिक्षा तो लगभग ना के बराबर है,ऐसे में इसका लाभ किस तरह के लोग लेने के प्रयास में हैं? भले ही तिहाई आबादी व्हाट्सएप्प,फेसबुक (और अब Paytm) पर समय व्यतीत करने में मजा ले रही हो,पर इंटरनेट आधारित इन ‘मुफ़्त’ सेवा देने वाली कंपनियों का वास्तविक बिज़नस मॉडल और इनके पैसा बनाने के तरीकों पर जानकारी जुटाना कतई जरूरी नहीं लगता क्योंकि इनसे कोई प्रत्यक्ष नुक्सान नहीं दिखता।प्रत्यक्ष उपभोक्ताओं को बिलकुल मुफ़्त सेवा देने वाली कंपनी व्हाट्सएप्प को फेसबुक ने 19 ख़रब डॉलर में खरीदा!! आम आदमी के लिए इन मुफ़्त सेवा प्रदाताओं के व्यवसाय ढाँचे और इनके पैसा बनाने के तरीकों को समझना थोडा जटिल ज़रूर हो सकता है,पर एक जागरूक उपभोक्ता होने के नाते इतना जरूर समझना चाहिए कि आखिर हमारा कुछ दाँव पर तो नहीं लगा है!! ध्यान रखिये कि जहां आप पैसे चुकाए बिना सेवा ले रहे होते हैं वहाँ आप खुद उत्पाद होते हैं और आप द्वारा हर पल पैदा किये जा रहे आंकड़ों(Data) के द्वारा आपकी आदतों और रोजमर्रा के जीवन से जुड़े पैटर्न किसी तीसरे पार्टी को महंगे दामों पर बेचा जाता है जिसका इस्तेमाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां या शायद खुद सरकारें अपने हित के लिए इस्तेमाल करती हैं।भारत जैसे देश जहां एक बड़ी आबादी के लिए प्राथमिक शिक्षा,स्वास्थ्य, कानूनी शिक्षा,गवर्नेंस आदि बेहद खस्ताहाल माहौल में हों वहाँ पूरी अर्थव्यवस्था को कैशलेस और गवर्नेंस को पेपरलेस बनाने का प्रयास क्या गुल खिलायेगा ये तो समय जाने पर इतना तय है कि डेटा के खेल में माहिर इंटरनेट आधारित गिद्ध बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अपने हितों को समझने और उसकी रक्षा कर पाने में भारत की बड़ी आबादी अभी सक्षम नहीं है।हमारी पूरी पीढ़ी ‘भारत एक विकासशील देश है’ पढ़ते हुए बड़ी हुई है,इसके साथ ही यह भी बताया गया कि फलां-फलां विकसित देश हैं जो हमसे बहुत आगे हैं।हमारी पूरी पीढी इसी हीनभावना को पालते हुए बड़ी हुई है,और अब हम बस बिना समय गवाए सबको पीछे छोड़कर विकसित हो जाना चाहते हैं।पर समझना जरुरी है कि इस जल्दबाजी में बहुत कुछ छूट जायेगा।रेस के खेल में पीछे छूट जाने जैसी बातों का मतलब नहीं होता।प्राथमिक शिक्षा का सुदृढ़ ढांचा,तकनीकी और उच्च शिक्षा में गंभीर मौलिक सुधार,स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप द्वारा एक स्वस्थ भारत का निर्माण,पुलिस-सुधार और प्रशासन की जनता के प्रति सीधी जवाबदेही,न्याय प्रणाली में मूलभूत सुधार,पर्यावरण,’सिविक-सेंस’ की भावना,वित्तीय और कानूनी शिक्षा प्राथमिक और प्रौढ़ स्तर पर आदि अभी भी भारत की मूल प्राथमिकताएं हैं जोकि महाशक्ति और विकसित बनने से कहीं बड़ी हैं।आर्थिक भ्रष्टाचार की जडें खुद बैंक और वित्तीय संस्थाओं में कहीं अधिक गहराई से फ़ैली हैं,इनका गला दबाना भी सरकार को अपनी प्राथमिकता सूची में रखना चाहिए।जब तक जनता अपने हितों की रक्षा के लिए सरकार पर निर्भर रहेगी तब तक कोई भी देश विकसित या महाशक्ति नहीं बन सकता।नागरिकों को नागरिक अधिकार की जानकारी,कानूनी-वित्तीय-प्रसाशनिक आदि स्तरों पर सुनिश्चित किये जाने अपेक्षित हैं। सरकार को मिलने वाले सीमित 5 साल किसी भी तरह के चमत्कार के लिए कतई काफी नहीं हैं,पर चुनावी गणित में जन अपेक्षाओं पर कदमताल करते हुए सरकार को सीमित समय को ध्यान रखते हुए स्टंटबाजी के ऐसे कदम लेने होते हैं जो कभी कभी उचित नहीं होते।यदि लॉन्ग-टर्म में सब कुछ सही हो जायेगा तो जैसा की मनमोहन सिंह ने कीन्स को उद्धृत करते हुए कहा कि लॉन्ग-टर्म में तो हम सभी मर भी जाते हैं।

(लेखक सामाजिक एवं आर्थिक मामलों के जानकार हैं, ये उनके विचार हैं )

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