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नोट बंदी : वैश्वीकरण से पीछे हटने की दिशा में ….!

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डा० मनीष पाण्डेय की कलम से 
भारतीय समाज की पुरानी ख़ासियत मितव्ययिता की रही है। यहाँ योग की प्रवृत्ति रही है। कबीर दास कह गए कि ” साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधू न भूखा जाए। बर्बादी करने पर पलक से नमक उठाने तक का प्रावधान मिथकों में गहराई से जुड़ा हुआ है। महात्मा गाँधी इसी विचार पर रामराज्य प्रस्तावित करते हैं। डॉ. लोहिया खर्च की सीमा तय करने की बात करते हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी में हर दस साल में मुद्रा बदलने का सुझाव देते हैं। चार्ल्स मेटकॉफ जैसे कई अंग्रेज मानवशास्त्री भारतीय गाँवो को स्वायत्त मानते थे, अर्थात गाँव अपनी जरूरतें आपस में विनिमय से पूरा कर लेते थे। हालाँकि देश में सामाजिक-आर्थिक सम्बद्धता हमेशा से थी लेकिन आर्थिक व्यवहार सामान्यतया आस पड़ोस के क्षेत्र तक ही सीमित था। यह प्रवृत्ति सदियों तक कमोवेश हावी रही। इसमें बड़ा बदलाव आया जब नए तरीके का पूंजीवाद पनपा और दुनियाभर की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जुड़ने लगी। भारत में भी यह वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिसके परिणामस्वरूप यहाँ भी बड़ी तेजी से उभोक्तावाद का उभार हुआ। बाजार ने अपने हथकंडों से समाज के मनोविज्ञान प्रभावित कर दिया। बड़े मुश्किलों के बाद तो भारतीय समाज ने अपनी सोंच बदली और बँधी हुई गठरी खोली थी।
पूँजीवाद की विशेषता है, वह नियत समय बाद मंदी का शिकार हो जाता है। वैश्वीकरण के साथ भी ऐसा ही हुआ है। इसके पुरोधा देश ही इसे नियंत्रित कर मुक्त अर्थव्यवस्था पर पुनर्विचार करने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में दुनियाभर की राजनीति भी बदल रही है और अमेरिका, रूस, भारत, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम से लेकर लगभग दूनियाँ के सभी भूभाग में दक्षिणपंथ और राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है। यह राष्ट्रवाद बुनियादपरस्ती और धार्मिक कट्टरता तक पहुँच रहा है।लोकतंत्र के अभाव वाले देशों में तो बड़े पैमाने पर मारकाट मची हुई है। ऐसी स्थिति में सभी देश व्यापार आदि में स्वायत्तता की और बढ़ रहे हैं। भारत का इस वित्तीय वर्ष का बजट इसी दिशा में था,जो बचत और आधारभूत संरचना को बढ़ाने पर जोर देती है।

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कालाधन पैदा होने से रोकने की दिशा में लगातार हो रहे प्रयास और नोट बंदी ने इसे नई हवा दे दी है। 10 रुपये का सामान लेकर 500 की नोट देने की बढ़ी प्रवृत्ति पर इस नोटेबन्दी ने करारा प्रहार कर दिया है। सबको पैसे की अहमियत पता चल गई। बचत की जीवन शैली को और भी बढ़ावा मिलेगा जब नया कालाधन तैयार करने में असुविधा होगी। आरामतलब वर्ग भी प्रभावित होगा। उसे अपनी उपभोगवाद की अति पर अंकुश लगाना पड़ेगा। उदारीकरण के बाद उभरे नव्-सामंत अभी और भी परेशान होने वाले हैं। बाजार में आई मंदी में इन सबके संकेत छिपे हैं।
दुनियाभर का समाज विभिन्न नस्लीय, भौगोलिक, जातीय, महाद्विपीय, धार्मिक, सामुदायिक, ऐतिहासिक पूर्वाग्रह, प्राकृतिक संसाधनों और आर्थिक आधारों पर विभाजित और स्तरीकृत है। भौगोलिक सीमा से बँटे देशों की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था काफी हद तक इस विभाजन को स्थाई और संस्थागत कर देती है। कुछ ही दशक पूर्व तक विभिन्न राष्ट्रों के बीच सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों में काफी सीमा तक प्रतिबन्ध थे। हालाँकि व्यापार पहले भी एक देश को दूसरे देश से जोड़ता था लेकिन वाशिंगटन मतैक्य से लेकर विश्व व्यापार संगठन की स्थापना एवं समस्त विश्व में कमोबेश वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होने से इन संबंधों में तेजी आ गई। संचार तकनीकी में हुई तीव्र वृद्धि और और मुक्त बाज़ार की वजह से पूँजी प्रवाह और श्रम प्रवाह भी हुआ और विभिन्न देशों में तकनीकी, उत्पाद, और श्रम का निर्बाध प्रवाह और सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधो के आदान-प्रदान के साथ बड़े पैमाने पर माइग्रेशन शुरू हुआ, लेकिन कुछ ही दशक में इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे।आर्थिक हितों को लेकर एक नए तरह का टकराव सामने आने लगा, जिसने अधिकाधिक आर्थिक दोहन की हवस में दुनियाभर की राजनीति पर प्रभाव बनाना शुरु किया, जिसका कई क्षेत्रों में भयानक दुष्परिणाम देखने को मिला, जहाँ व्यापक हिंसा मची हुई है।

इस तथ्य में कोई संदेह नहीं कि वैश्वीकरण ने भारत के सामाजिक-आर्थिक बदलाव के रूप में व्यक्ति जीवन स्तर में वृद्धि की है और संभावनाओं के नए द्वार भी खोले हैं, लेकिन बौद्ध धर्म में एक मुहावरा है कि, स्वर्ग पहुँचने की जो चाबी है, वह नर्क के दरवाजे भी खोलती है| बात यहाँ भी इससे पृथक नहीं है| एक तरफ जहां वैश्वीकरण ने व्यापक समृद्धि पैदा की, तो उसी के सापेक्ष असमानता और वंचना को भी पैदा किया| अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का दौर भी बार-बार मंदी से जूझ रहा है और इसी के परिणामस्वरूप वैश्वीकरण की मूलभूत विशेषता मानी जाने वाली पूंजी और श्रम के निर्बाध प्रवाह पर नियंत्रण लगने लगा है| कभी ‘ग्लोबल विलेज़’ का सपना देखने वाली दुनिया के अधिकांश हिस्सों में राष्ट्रवाद एवं सजातीयता के कट्टरता के रूप में हो रहे नये उभार से ऐसा लगने लगा है कि दुनिया अब अवैश्वीकरण की प्रक्रिया में शामिल होने की ओर उन्मुख है| वैश्वीकरण के पुरोधा रहे यूरोप में ब्रेक्जिट घटना और अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव के दौरान डोनाल्ड ट्रम्प की डबल्यू.टी.ओ. से बाहर होने धमकी कुछ ऐसे ही संकेत देती है| चुनाव जीतने के बाद ट्रम्प ने पहले कदम में कहा है कि अमेरिका ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से पीछे हटेगा और वर्क वीजा प्रोग्राम् (कामगारों को दिया जाने वाला वीजा) की जाँच कराइ जायेगी। भारत भी अपनी अर्थव्यवस्था में कई ऐसी नीतियाँ लागू कर रहा है, जो उसे वैश्वीकरण के विपरीत स्वायत्तता की ओर ले जाएंगी|

 

( लेखक समाज शास्त्र के अध्येता हैं, ये उनके विचार हैं )

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