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काली अर्थव्यवस्था का साम्राज्य खड़ा करने वालों पर शिकंजा कसना होगा

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अनूप के. त्रिपाठी

संविधान-सम्मत ‘क़ानून का शासन'(Rule of Law) क्यों और कैसे धीरे-धीरे ‘क़ानून द्वारा शासन'(Rule by Law) बन जाता है? इसका जिम्मेदार कौन है,खुद संविधान या हम सब? राष्ट्र को आगे बढ़ना चाहिए,और जिनसे राष्ट्र है उन्हें भाड़ में जाना चाहिए!!आपको राष्ट्र दिखता है,और भी लोग हैं जिन्हें वो दिखते हैं जिनसे राष्ट्र है।किसे इन्कार है कि घर में चोर घुसे हैं..हर आम आदमी उसके हक़ की कमाई से अपना पेट बड़ा कर लेने वालों से नफरत कर रहा है,तो चोरों को बाहर निकाल पाने की अक्षमता में आप घर में आग लगा देंगे??आपके लिए राष्ट्र प्रथम है,हमारे लिए गरीब,मजदूर,किसान,आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोग,और गाँव-देहात में बसे विकास की चकाचौंध से दूर बसे लोग प्रथम हैं जिनसे ये राष्ट्र बना है।आम आदमी के हक़ का धन लूट कर काली अर्थव्यवस्था का साम्राज्य खड़ा करने वालों को पकड़िये और उन्हें दीजिये सज़ा जो भी देनी हो,सारा देश आपके लिए ताली बजायेगा..आप बनिए फिर से देश के भाग्यविधाता,पर सार देश को उसी ‘चैम्बर’ में झोंकने का प्रयास मत करिये।आपने जो मुद्दा उठाया वह बिलकुल सही है,काली कमाई वालों ने देश को दीमक की तरह चाट खाया है और गैर-बराबरी की खाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है,इनका इलाज़ जरुरी है..यहां तक कि हम आपकी नीयत और उद्देश्यों की भी सराहना कर सकते हैं पर इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए आपके तौर-तरीकों पर सवाल उठाने वालों को आप के लोग ‘राष्ट्र-द्रोही’ साबित कर देंगे यह भी अक्षम्य है।सारे राष्ट्रप्रेम का ठेका कुछ ख़ास लोगों ने बाँट लिया है,यह गलत है।उद्देश्य और नीयत अपनी जगह,पर उन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए आपके तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने वालों से देश भक्ति का प्रमाणपत्र मांगने का रवैया गलत है।हर आलोचक से यह पूछा जाना कि ‘तुम इस तरफ हो या उस तरफ?’,यह देश को किस तरफ लेकर जायेगा?हर गरीब को अपने से अधिक अमीर से एक स्वाभाविक चिढ होती है,इस चिढ का इस्तेमाल राजनीति के लिए कोई नया नहीं है।गैर-बराबरी के बाजार में अब तक गरीबी ही सबसे ज्यादा बिकती आई है,पर इस कुंठा का इस्तेमाल राष्ट्रप्रेम की स्याही या ठप्पा लगाने में करना गलत है।अमीरी और गरीबी की कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं होती,एक जनांकिकीय स्तर पर जी रहा व्यक्ति अपने से ऊपर वाले को अमीर मानता है और कभी कभी नीचे वालो को गरीब मानने से इनकार करता है।नोट बदलने से नीयत भी बदल सके तो आपको विशेष आभार।14_08_2015-income_taxकई ऐसे लोग सिर्फ इसलिए ईमानदार समझ बैठे हैं खुद को क्योंकि उन्हें बेईमानी करने का मौका नहीं मिला अब तक,ये भी एक कड़वी सच्चाई है!!मौका मिलने पर वही गरीब और ईमानदार, बेईमान बनने में देर नहीं लगाता।भ्रष्टाचार नीयत से जुड़ा मुद्दा है,सुधार के प्रयास नीचे से भी जरुरी हैं।पुलिस,प्रशासन,सरकारी निकायों में बैठे कुछ अधिकारी और प्राधिकारी भी नीयत के कच्चे हैं और काली अर्थव्यवस्था में मददगार की भूमिका में हैं।हमारे देश में यदि पूरे मोहल्ले की बिजली गुल रहे तो समस्या नहीं मानी जाती,पर अगर सिर्फ खुद के घर की बिजली गुल हो तो आफत लगती है।देश के आम जन को खुद के दामन में भी झाँक के देखना चाहिए कि उसकी ‘ईमानदारी’ स्वभाव की है या ‘मजबूरी’ की? देश-भक्ति में डूबते-उतराते आज के माहौल में गरीबी और ईमानदारी को पर्यायवाची बना के पेश किया जा रहा है,ना तो गरीबी कोई निरपेक्ष स्तर है और ना ही ईमानदारी एक स्वतंत्र गुण।क्यों हर बार हम उम्मीद करते हैं कि कोई मसीहा आये और सब कुछ ‘सही’ कर दे! सब कुछ ‘सही’ सिर्फ आप और हम कर सकते हैं,अपने अधिकार और हक़ के सही इस्तेमाल से।दूसरा कोई मसीहा सब कुछ सही करने के नाम पर और भी बहुत कुछ दे जायेगा जो आपके स्वीकार और अस्वीकार करने का तलबगार नहीं होगा! देश को आगे देखने का शौक है तो नीयत सही करिये,अपनी ईमानदारी स्वभाव की करिये,मजबूरी की नहीं! अपने से अधिक अमीर से रहने वाली आपकी चिढ और उसे परेशान देख कर आपको अच्छा लगने की आपकी फितरत का फायदा उठाना सियासत को बखूबी आता है।देश आपके स्वावलंबन का तलबगार है,अपने स्तर और अपने जगह से आप काली अर्थव्यवस्था के मजबूत दीवारों को ठोकर मार कर कमजोर कर सकते हैं।आपकी अपनी व्यग्रता को पूरे राष्ट्र की व्यग्रता बना का अपने एजेंडे की पूर्ति को सियासत हर वक़्त तैयार बैठी है।बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद ने समूची मानव जाति को खोखला बना दिया है,भीड़ के बीच में खड़े होकर आपका अकेलापन इसकी गवाही देगा।युवाओं के लिए खुलते कॉलेजों के साथ बढ़ती आत्महत्याएं इसकी गवाही देंगी।अपने लालच और ईर्ष्या पर काबू पाइए,काली अर्थव्यवस्था के भागीदार हम सब हैं।बिना हमारे सहयोग के कोई काली कमाई नहीं पनप सकती। ट्रैफिक जाम की तरह हम सबको लगता है कि हमारी समस्या की वजह कोई और है जबकि मुड़ कर देखें तो पता चलता है कि हम खुद अपने से पीछे वालों के समस्या के जिम्मेदार हैं।काली अर्थव्यवस्था और काली कमाई के विरुद्ध लड़ाई हम सब की अपनी लड़ाई है,इसे हम अपनी जगह पर अपनी नीयत और दिमाग पर काबू कर लड़ सकते हैं।मसीहाओं से इस लड़ाई को लड़ने की उम्मीद बाँधने पर हर दौर में निराशा ही हाथ आएगी,क्योंकि मसीहाओं की रहमत कभी अकेले नहीं आती,यह समझना अत्यंत आवश्यक है।

( लेखक आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के जानकार हैं, ये उनके विचार हैं )

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