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बैंकों के काॅरपोरेट घरानों में फँसेे अरबों रुपये को कौन लायेगा ? कौन होगा ज़िम्मेदार ?

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अनूप के. त्रिपाठी

आम आदमी और मध्यम-आय वर्ग के लोगों के बैंकों में रखे पैसे का कॉर्पोरेट और भ्रष्ट लोगों ने जमकर बंदरबांट किया है,जिससे देश में बैंकों की हालात बेहद नाजुक हो गई है।

सरकार के ऊपर बैंकों के फिर से पूंजीकरण करने का बेतहाशा दबाव है,पर सरकार राजकोषीय अनुशासन के चलते एक सीमा से अधिक जाने में असमर्थ है । नोट बदले जाने की कवायद के जरिये काले धन पर ‘प्रहार’ और टैक्स-अनुपालन में दिखाई जा रही सख्ती की मूल वजह अर्थव्यवस्था के आधार बैंकों के लड़खड़ाते पूंजी आधार को दुरुस्त करने की कवायद अधिक जान पड़ती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में बैंक बेहद संवेदनशील और नाज़ुक अवस्था में हैं जिसकी बड़ी वजह ‘बैड लोन’ में हुई बेतहाशा वृद्धि है , इसमें भी कॉर्पोरेट लोन की अधिक हिस्सेदारी है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल दिसंबर के अंत तक बैंकों का बैड लोन 13 लाख करोड़ के आस पास होगा, जिसमे एक बड़ी हिस्सेदारी बड़े कॉर्पोरेट घरानों की होगी। RBI ने फरवरी तक बैंकों को अपना बैलेंस शीट दुरुस्त करने का सख्त निर्देश दिया है । अडानी,अम्बानी,जेपी,गैमन इंडिया,किंगफ़िशर एयरलाइन्स,ए बी जी शिपयार्ड,जीवीके,जीएमआर जैसे बड़े नामों के हज़ारों करोड़ के फंसे लोन बैंकों के ऊपर बेतहासा दबाव बना रहे हैं। अकेले ICICI बैंक का लगभग 44000 करोड़ कॉर्पोरेट के बैड लोन के रूप में फंसा है।सरकार ने खुद बैंकों में 70000 करोड़ रूपये डालने का आश्वसन दिया है। rbi-2-620x400बसेल3 के मानकों को पूरा करने के लिए बैंकों को लगभग डेढ़ लाख करोड़ के पूँजी की आवश्यकता है। बैंकों की लापरवाही और सरकार के हस्तक्षेप से बैंकों का अधिक पैसा कॉर्पोरेट जगत के बड़े नामों में बंदरबांट हो चुका है जिसके लौटने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। यह पैसा सरकार आम आदमी और मध्यवर्ग के पैसे से पूरा करने की जुगत में है और बाकी के काले धन के स्वयं नष्ट हो जाने से सरकार की लायबिलिटी उसी अनुपात में कम हो जाने से भी राहत होगी। काले धन के रूप में पनप चुकी समानान्तर अर्थव्यवस्था पर करारा प्रहार एक जरुरी कदम है जिसके राजनीतिक आयाम भी हैं और यह मुद्दा देश के आम आदमी के दिल और भावनाओं से जुड़ा मुद्दा भी है पर इस दिशा में उठाये गए किसी कदम का भार केवल आम आदमी और मध्य आय वर्ग के लोग उठाएं तो यह गलत है। सरकार को कॉर्पोरेट के बैड लोन को रिकवर करने के लिए उठाये जा रहे क़दमों को भी देश के सामने रखना चाहिए और इससे जुड़े आंकड़े भी देश की आम जनता के सामने रखने चाहिए। कॉर्पोरेट और बैंकों की गठजोड़ से सरकार की शह पर हुए लोन के बंदरबांट के दुष्प्रभावों की आंच सिर्फ आम जान को आर्थिक अनुशासन सिखाकर नहीं देना चाहिए। आम जन तो देशहित में कितनी भी परेशानी उठाने को तैयार ही रहता है पर सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि बड़े कॉर्पोरेट घरानों के बैंकों के साथ मिलकर खेल खेलने पर भी लगाये और इससे सम्बंधित सारे आंकड़े देश के सामने रखकर हज़ारो करोड़ की वसूली से समबन्धित कदम उठाये व देश को इसकी जानकारी दे। बड़े तबकों के मनमाने रवैये का बोझ आम जनता ‘राष्ट्रहित’ के परदे तले कब तक उठाती रहेगी, यह बड़ा सवाल है ?

( लेखक अनूप के त्रिपाठी , आर्थिक मामलों के जानकार हैं,ये उनके विचार हैं )

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