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काली अर्थव्यवस्था में बदलाव ज़रूरी, परन्तु गरीबों का भी रहे ध्यान

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अनूप के. त्रिपाठी

1000 का नोट अभी बना नहीं,500 का अभी आया नहीं..100-50 का कोई निकालने को तैयार नहीं..तो आखिर 2000 के नोट का करें क्या!!!
क्या मोदी जी खर्च करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाह रहे हैं,या ‘कैशलेस-इकॉनमी’ की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं?? अगर हाँ तो इनकी अच्छाई-बुराई पर बहस करने से पहले ये समझ लेना ज्यादा जरुरी है कि भारत की अर्थ और समाज व्यवस्था के लिहाज़ से दोनों ही कदम समय के लिहाज़ से ‘अर्धपरिपक्व’ हैं! ‘कदम’ का अच्छा होना ही पर्याप्त नहीं होता,उसकी प्रासंगिकता और उस कदम के लिए पूर्ण की गई तैयारी भी उतनी ही मायने रखती है।अभी तक वैश्विक आर्थिक संकटों से निपटने में भारत की कामयाबी पर यही दलील दी गई कि हमारे ‘फंडामेंटल्स’ काफी मजबूत है,तो फिर आखिर बिना वैकल्पिक तैयारी के मुकम्मल किये इन ‘फंडामेंटल्स’ को किस दबाव में कमजोर किया जा रहा है? क्या हम उस वह अमेरिका बनने की राह पर हैं जहाँ क़र्ज़ को भी प्रतिभूति बनाकर बाजार में बेच दिया जा रहा था।कार खरीदना सम्पन्नता का सूचक हो सकता है,अच्छा कदम हो सकता है पर वह गरीब जिसे लड़की की शादी,लड़के की पढाई,बुज़ुर्ग की दवाई पर अपनी लगभग सारी कमाई खर्च करनी होती है उसके लिये कार खरीदना वाहियात और हास्यास्पद कदम होगा।कदम का सिर्फ अच्छा होना पर्याप्त नहीं,उसके लिए तैयारी का मुकम्मल होना अधिक जरुरी है।भारत जैसे जटिल और बड़े ढाँचे के देश में जिस तरह से आधे घंटे के अंदर 500 और हज़ार के नोट गैरकानूनी बना दिए गए,वह काले धन के महल गिराने के लिहाज़ से अच्छा कदम होते हुए भी अपरिपक्व,बिना ‘जरुरी तैयारी’ के उठाया गया कदम है।भूतकाल के काले धन पर अंकुश लगाने से समस्या ख़त्म नहीं होने वाली,भविष्य के काले धन के सृजन को रोकने के लिए कोई भी ठोस कार्ययोजना अभी जमीन पर नहीं दिख रही।फ्रांस की क्रान्ति के समय महारानी मेरी ने जिस तरह से देश के गरीबों के बुनियादी हालात के विषय में अपनी अनभिज्ञता दर्शाई थी और रोटी की मांग को केक से पूरा करने की बात की थी कुछ वैसी ही पहल भुखमरी और बेरोजगारी की मार झेल रहे भारत की आम जनता को ‘कैशलेस इकॉनमी’ की तरह धकेलना का प्रयास भी दिखता है।सवाल इसका नहीं कि यह अच्छा है या बुरा पर क्या इस कदम के लिए भारत तैयार है..क्या इसके लिए यह परिपक्व समय है..यह बड़ा सवाल है? विकेंद्रीकरण लोकतंत्र की आत्मा होती है,वर्तमान समय जिस तरह से केंद्रीकृत कार्ययोजना और नियोजन की तरफ बढ़ रहा है और स्टेकहोल्डर्स को बिना विश्वास में लिए बड़े कदम उठाये जा रहे हैं,वह लोकप्रिय तो दिख सकते हैं पर उनके हितसाधन विमर्श के विषय हैं।देश का आम आदमी काली अर्थव्यवस्था को लेकर जागरूक है और चिंतित भी है पर वह इस व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन भी चाहता है और इस ढाँचे में बदलाव चाहता है।आम आदमी काली अर्थव्यवस्था के शरीर में बदलाव चाहता है,उसके कपडे बदलकर ताली बटोरने का प्रयास शायद आम आदमी को ही परेशानी में डालने की तरफ किया गया प्रयास बनकर रह जायेगा ।

(लेखक सामाजिक एवं आर्थिक जानकार है, ये उनके विचार है )

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