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भुखमरी से निर्णायक लड़ाई की ज़रूरत – डॉ. मनीष पाण्डेय

vichar1अभी हाल ही में सामने आये ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की स्थिति काफी चिंताजनक है। इस रैंकिंग के 118 देशों की सूची में भारत का 97वां स्थान होने के बाद से भुखमरी की समस्या पर चर्चा शुरू हो गई। हालाँकि भुखमरी की समस्या में पहले की स्थितियों की अपेक्षा काफ़ी सुधार हुआ है। भुखमरी अब अकाल जैसी समस्या तो नहीं है लेकिन कुपोषण भयावह रूप धारण कर रहा है। हमारे देश की समस्या यह है कि यहाँ गरीबी और भुखमरी आज भी पहले जैसी समस्या और चुनौती है, लेकिन मुद्दा नहीं है। देश के तमाम हिस्सों में भुखमरी और कुपोषण एक बड़ी समस्या का रूप ले रहा है। महाराष्ट्र के पालघर सहित करीब आधा दर्जन जिले के आदिवासी गाँवों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक अब भी भारत चालीस फ़ीसद कुपोषित बच्चों का देश है, जहाँ हर वर्ष पच्चीस लाख बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं।
तकनीकी रूप से देखा जाये तो भुखमरी वह स्थिति है, जिसमें कैलोरी ऊर्जा कम ग्रहण की जाती है, और इसकी लगातार अनदेखी मृत्यु का रूप ले लेती है। किसी देश में भुखमरी, युद्ध, अकाल, अमीर और गरीब के बीच असमानता आदि के कारण उत्पन्न होती है। बच्चों में पोषण की कमीं से होने वाला क्वाशियोरकोर और सूखा रोग की तरह कुपोषण की स्थिति भी भुखमरी के गंभीर कारणों से विकसित हो सकती है। आमतौर पर यह यह रोग तब उत्पन्न होते हैं जब लोगों द्वारा खाया जाने वाला भोजन पोषण(प्रोटीन, विटामिन्स, मिनरल्स, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा आदि) से भरपूर न हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, मृत्यु के दस शीर्ष रोगों में आयरन, विटामिन ए और जिंक की कमीं शामिल है। कुपोषण की समस्या न सिर्फ अभावग्रस्त परिवारों की है बल्कि कई सर्वेक्षणों के अनुसार उन सम्पन घरों के बच्चों में भी है, जो फ़ास्ट फ़ूड कल्चर के अनुरूप अनियमित आहार ले रहे हैं। भुखमरी विकासशील दुनिया के कुछ देशों में प्रचलित एक महामारी है। उन स्थानों पर, जहाँ अत्यधिक गरीबी है, वहां भुखमरी एक अनैच्छिक स्थिति बन जाती है। गरीबी के कारण काफ़ी सीमा तक भुखमरी भी उसके साथ एक संरचनात्मक समस्या बन जाती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत में प्रति व्यक्ति पोषक तत्वों की खपत गिर रही है। आंकड़े इस सन्दर्भ में बहुत शर्मनाक है लेकिन हम भुखमरी उन्मूलन पर चिंतन के बजाय अपनी आर्थिक उत्पादकता में गौरवान्वित हो रहे हैं। दीर्घकाल की दृष्टि से आर्थिक प्रगति का कोई मतलब नहीं है यदि देश अपने नागरिकों के जीवन के रखरखाव के लिए आवश्यक बुनियादी खाद्य को सुनिश्चित नहीं करता है।

दुनियाभर में आज भले ही स्थितियां कुछ सुधरी हों, और भूख से मारने वालों की संख्या में कमीं आ गई हो, लेकिन सामाजिक असमानता, पोषण का अभाव और शिक्षा की कमीं की वजह से यह समस्या बनी हुई है। भारत जैसे देश में यह और भयावह हो जाती है क्योंकि यहाँ यह ग़रीबी के वंशानुगत समस्या की तरह पीढ़ियों तक बनी रहती है। सरकार द्वारा लागू तमाम खाद्य सुरक्षा की स्कीमों के बाद भी कमजोर आर्थिक स्थिति भूख की समस्या को बनाये रखती है। शिक्षा और दक्षता की कमीं से व्यक्ति के जीवन में लगातार अभावग्रस्तता बनी रहती है। अभावग्रस्तता की स्थिति में भरपूर कैलोरी का पौष्टिक भोजन मिलना मुश्किल होगा। महँगाई की अलग समस्या है, जिसके कारण पौष्टिक आहार एकत्र करने में सामान्य परिवार को कठिनाई होती है। कुपोषण का मामला सीधे आर्थिक स्थिति से जुड़ा हुआ है। उत्तरआधुनिक समाजशास्त्री फूको इस समाज में ज्ञान को ही शक्ति मानते हैं। यानि जो स्किल्ड है, उसी के पास धन और शक्ति का एकत्रीकरण होता है। यह बहुत मायने रखता है गरीबी और भूख की समस्या में।

भारत में भुखमरी की समस्या सरकारी योजनाओं के उचित क्रियान्वयन की कमीं से भी जुडी हुई है, जो सभी को भोजन उपलब्ध कराने की दिशा में निर्देशित की जाती है। योजनाओं के सही क्रियान्वयन में स्थानीय स्तर पर भ्रस्टाचार भी है और सरकारी अधिकारियों में इसके प्रति उदासीनता भी। भारत में लागू खाद्य वितरण प्रणाली भी दोषपूर्ण है। हालाँकि देश के कई राज्यों ने इसे काफ़ी चुस्त दुरुस्त बना रखा है, लेकिन फिर भी प्रशासनिक सुस्ती बड़ी कठिनाई खड़ी कर रही है। यद्यपि खाद्य सुरक्षा विधेयक इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है, परंतु यह भी पूरी तरह बुराइयों से मुक्त नहीं है। लाभार्थियों की पहचान के सन्दर्भ में इसमें भी स्पष्टता नहीं है। गरीबी के संकेतकों को विशिष्ट बनाने की जरुरत है। राज्यों के पास भी गरीबी मापने और परिभाषित करने का कोई तंत्र और आंकड़ा नहीं है। गरीबी के उपायों की देखरेख के लिए बनाई गई सभी समितियों के विचार अलग अलग हैं। सबने गरीबी रेखा के नीचे की आबादी के लिए अलग अलग संख्या निर्धारित की है। जहाँ तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सम्बन्ध है तो ये जगज़ाहिर है कि लगभग आधा आवंटित अनाज भ्रस्टाचार का शिकार हो जाता है और खुले बाजार में बेंच दिया जाता है। सूखा और बाढ़ राहत में भी कोई स्पष्टता नहीं है कि उस हिसाब से पात्रता निर्धारित की जा सके।

इन स्थितियों को देखते हुए हमें वितरण प्रणाली के लीकेज को कम करने और पारदर्शी बनाने पर जोर देना होगा अन्यथा तमाम आर्थिक विकास के बाद भी हम बांग्लादेश, इथियोपिया और नेपाल जैसे सर्वाधिक कुपोषित देशों से आगे नहीं बढ़ पायेंगे। इसलिए समय रहते भूख उन्मूलन और भुखमरी को रोकने के लिए सरकार को वर्तमान और भविष्य की योजनाओं को एक साथ मिशन के साथ लागू करना होगा, और इस प्रयोजन के लिए प्रशासनिक अधिकारियों के आलावा गैर सरकारी संगठनों और लोगों को करुणा और भाईचारे की भावना के साथ प्रयास करना होगा।

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