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फिदेल कास्त्रो की पुण्य तिथि पर वरिष्ठ पत्रकार सग़ीर-ए-खाकसार का आलेख

 

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25 नवंबर ,पुण्यतिथि पर विशेष।                          
वो शख्स अमेरिका की उधार दी हुई सांसों पर जीना नहीं चाहता था।उसे किसी के बनाये और थोपे गए वसूल पसन्द नहीं थे। आजीवन अमेरिकी नेतृत्व को चुनौती देना , प्रतिबंध झेलना बर्दाश्त था।लेकिन विश्व चौधरी के सामने सर झुकाना कत्तई मंज़ूर नहीं था।करीब आधी सदी तक क्यूबा के राष्ट्रपति रहे।पूंजी वाद, और साम्राज्यवाद के खिलाफ अनवरत संघर्ष करते रहे।दुनिया में जब लाल झंडे का किला जब हर जगह ढह रहा था उस वक्त भी उन्होंने लाल झंडे को झुकने नहीं दिया।जी,हाँ!हम बात कर रहे हैं हैं फिदेल अलेजांद्रो कास्त्रो रूज़ की जिसे दुनिया फिदेल कास्त्रो के नाम से जानती है।क्यूबा कम्युनिस्ट क्रांति के जनक और पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने 90 वर्ष की लंबी आयु पाई थी।जितना लंबा जीवन उतना ही बड़ा संघर्ष भी था उनका।              अमेरिका के धुर विरोधी रहे,कास्त्रो को  भारत  से बेहद लगाव था।वो नेहरू दुआरा शुरू किये गए गुट निरपेक्ष आंदोलन के शुरूआती समर्थकों में से थे।1983 में दिल्ली में हुए गुट निरपेक्ष सम्मलेन में कास्त्रो आकर्षण का केंद्र थे।वो बहुत ही खुशमिजाज़,ठहाका पसंद शख्सियत थे।अच्छे वक्ता के रूप में तो उन्होंने अपनी पहचान विश्विद्यालयों के दिनों में ही बना ली थी।लोग उन्हें सुनना पसंद करने लगे थे।हवाना विश्वविद्यालय से लॉ करने के बाद से ही उन्हों राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में सियासी सफर की शुरुआत कर दी थी। 1959 में क्यूबा क्रांति के बाद कास्त्रो और चे ग्वेवारा की अगुवाई में क्यूबा में समाजवाद की नींव रखी गयी। आरम्भिक समाजवाद के प्रयोगों  ने सदियों की दासता से न सिर्फ मुक्ति दिलाई अपितु शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं कम समय में ही जानता को सुलभ हो गयी।कृषि पर आधारित क्यूबा की अर्थ व्यवस्था ने भी कम समय में गति पकड़ ली।जिससे कास्त्रो की पकड़ न सिर्फ देश में मजबूत हुई बल्कि कम समय में ही अपनी अवाम में लोकप्रिय हो गए।अपनी राजनैतिक सूझबूझ से उन्होंने लगातार 50 वर्षों तक क्यूबा में एक क्षत्र राज किया।कास्त्रो के समर्थक उन्हें समाजवाद का सूरमा भी कहते थे।वो एक सैन्य राजनीतिज्ञ भी थे ।जिसने अपने लोगों को क्यूबा से आज़ाद कराया।हालाँकि समय समय पर उन पर अपने विरोधियों को क्रूरतम ढंग से निपटाने और दबाने का भी आरोप लगा।                                  13 अगस्त 1926 को एक धनी किसान के घर में जन्मे कास्त्रो ने अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए सतत संघर्ष किया।शीत युद्ध के दौरान भारत से नज़दीकियां और भी बढ़ी।भारत से कास्त्रो को बेहद लगाव था।जवाहर लाल नेहरू से उनकी पहली मुलाकात तब हुई जब वे सिर्फ 34 वर्ष के थे।1960 में संयुक्त राष्ट्र संघ की 15वीं वर्षगाँठ न्यूयार्क में आयोजित थी।महज 34 वर्ष की उम्र में ही कास्त्रो ने अमेरिका के खिलाफ एक ऐसे राजनेता की अपनी क्षवि बना ली थी क़ि न्यूयार्क में उन्हें ठहरने के लिए कोई होटल तक  देने को तैयार नहीं था। जिसकी शिकायत उन्होंने तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र के महासचिव डेग हैमरशोल्ड से की थी।यही नहीं अपने आक्रामक तेवरों के लिए प्रसिद्ध कस्त्रों ने संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के सामने अपने प्रतिनिधि मंडल के सहयोगियों के साथ तंबू लगा कर रहने की धमकी तक दे डाली थी।नेहरू से शुरू हुआ मुलाकातों और मधुर संबंधों का सफर लंबे अरसे तक चलता रहा।बाद में इंदिरा गांधी से भी उनके रिश्ते बहुत ही अच्छे रहे।यहाँ के नेताओं से भी कस्त्रों के अच्छे सम्बन्ध थे।ज्योति बसु और सीता राम येचुरी जैसे नेताओं ने भी क्यूबा की यात्रायें की और कस्त्रों से बेहतर सम्बन्ध बनाये रखे।1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद क्यूबा पूरी तरह से टूट गया था।तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह रॉव और कम्युनिस्ट नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने क्यूबा की मानवीय आधार पर सहायता की थी।करीब बीस हज़ार टन गेहूं और भारी मात्रा में साबुन भेजकर भारत ने क्यूबा की मदद की थी।तब कस्त्रों ने न सिर्फ भारत का शुक्रिया अदा किया था बल्कि यह भी कहा था क्यूबा अब कुछ दिनों तक और ज़िंदा रहेगा।कस्त्रों के निधन पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रधांजलि अर्पित करते हुए उन्हें 20वी सदी का इतिहास रचने वाली हस्तियों में एक तथा भारत का अच्छा मित्र बताया था।प्रधानमंत्री ने ट्वीट भी किया था कि कास्त्रो के निधन पर मैं क्यूबा की सरकार ,जनता के प्रति गहरी संवेदना ज़ाहिर कर ता हूँ।कास्त्रों ने 90 वर्ष का लंबा जीवन जिया था।25 नवंबर 2016 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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