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कौन है दाऊदी बोहरा (मुस्लिम) ,समुदाय के धर्म गुरु , जिससे पीएम मोदी गए मिलने । पढें, पूरी खबर

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दाऊदी बोहरा समुदाय के मौजूदा सर्वोच्च धर्मगुरू सैय्यदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन इन दिनों अपने मध्य प्रदेश प्रवास के तहत इंदौर में हैं. वे छह सितंबर को इंदौर पहुंचे थे और 25 सितंबर तक वहां रहेंगे.
इस दौरान वे मोहर्रम के मौक़े पर वाज़ (प्रवचन) फ़रमाएंगे. मध्य प्रदेश सरकार ने सैय्यदना को राजकीय अतिथि का दर्जा दिया है, लिहाज़ा स्थानीय प्रशासन और भाजपा शासित नगर निगम का पूरा अमला भी सैय्यदना की ख़िदमत में जुटा हुआ है.
चूंकि दो महीने बाद मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है, लिहाज़ा ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सैय्यदना के ‘दर्शन’ के लिए शुक्रवार को इंदौर पहुंचे. कांग्रेस का प्रादेशिक नेतृत्व भी राहुल गांधी को वहां ले जाने की कोशिश में जुटा है.
हालांकि वोटों के लिहाज़ से मध्य प्रदेश में बोहरा समुदाय की प्रभावी मौजूदगी महज़ तीन शहरों- इंदौर, उज्जैन और बुरहानपुर में ही है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के लिए बोहरा समुदाय की अहमियत उनके वोटों से ज़्यादा सैय्यदना से चुनावी चंदे के रूप में मिलने वाले नोटों की है.
कहा जाता है कि सैय्यदना अपने अनुयायियों से विभिन्न रूपों में जुटाई गई धनराशि में से इन दोनों पार्टियों को मोटी रक़म चुनावी चंदे के रूप में देते रहे हैं इसीलिए दोनों प्रमुख दलों के शीर्ष नेतृत्व का सैय्यदना की ख़िदमत में पेश होना कोई चौंकाने वाली बात नहीं है.
हालांकि सैय्यदना से पार्टियों को मिलने वाले चंदे का लेन-देन अघोषित तौर पर होता है. ख़ास बात यह है कि पहली बार कोई प्रधानमंत्री इस तरह बोहरा धर्मगुरू से मिलने पहुंचा. इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने सैय्यदना की ख़िदमत में इस तरह हाज़िरी नहीं बजाई.
अलबत्ता तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ज़रूर 1960 के दशक में गुजरात के सूरत शहर में दाऊदी बोहरा समुदाय के एक शिक्षा संस्थान का उद्घाटन करने गए थे, जहां 51वें सैय्यदना ताहिर सैफ़ुद्दीन से उनकी मुलाक़ात हुई थी. उस मुलाक़ात की तस्वीर को सैय्यदना और उनके निकटतम अनुयायी आज तक प्रचारित करते हैं.
गुरू नहीं एक तरह से शासक

दूसरे धर्मगुरुओं के मुक़ाबले सैय्यदना का अपने समुदाय में एक अलग ही रुतबा है, एक तरह से वे अपने समुदाय के शासक हैं. मुंबई में अपने भव्य और विशाल आवास सैफ़ी महल में अपने विशाल कुनबे के साथ रहते हुए वे ख़ुद तो हर आधुनिक भौतिक सुविधाओं का उपयोग करते हैं, लेकिन अपने सामुदायिक अनुयायियों पर शासन करने के उनके तौर तरीक़े मध्ययुगीन राजाओं-नवाबों की तरह हैं.
उनकी नियुक्ति भी योग्यता के आधार पर या लोकतांत्रिक तरीक़े से नहीं, बल्कि वंशवादी व्यवस्था के तहत होती है, जो कि इस्लामी उसूलों के अनुरूप नहीं हैं.

सुधारवादी बोहरा आंदोलन के नेता इरफ़ान इंजीनियर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया था कि एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें सैय्यदना जैसे ‘विवादास्पद’ धर्मगुरू के कार्यक्रम में शिरकत करने से बचना चाहिए. लेकिन ज़ाहिर है मोदी ने उनकी अपील ठुकरा दी.

ऐसा है समुदाय का इतिहास

दाऊदी बोहरा समुदाय की विरासत फ़ातिमी इमामों से जुड़ी है, जिन्हें पैगंबर हज़रत मोहम्मद (570-632) का वंशज माना जाता है. यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अक़ीदा (श्रद्धा) रखता है. दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैय्यब अबुल क़ासिम थे. उनके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई, जो दाई-अल-मुतलक़ सैय्यदना कहलाते हैं.
दाई-अल-मुतलक़ का मतलब होता है-सुपर अथॉरिटी यानी सर्वोच्च सत्ता, जिसके निज़ाम में कोई भी भीतरी या बाहरी शक्ति दख़ल नहीं दे सकती या जिसके आदेश-निर्देश को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती. सरकार या अदालत के समक्ष भी नहीं.
दाऊदी बोहरा समुदाय आम तौर पर पढा-लिखा, मेहनती, कारोबारी और समृद्ध होने के साथ ही आधुनिक जीवनशैली वाला है लेकिन साथ ही उन्हें धर्मभीरू समुदाय भी माना जाता है.
अपनी इसी धर्मभीरुता के चलते वह अपने धर्मगुरू के प्रति पूरी तरह समर्पित रहते हुए उनके हर ‘उचित-अनुचित’ आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं.

सैय्यदना की वैधता का विवाद अदालत में

मौजूदा सैय्यदना के परिवार के सदस्यों ने ही उनके सैय्यदना बनने को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है. मौजूदा सैय्यदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन के पिता डॉ. मोहम्मद बुरहानुद्दीन 52वें सैय्यदना थे. परंपरा के मुताबिक़ उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी तय करना था लेकिन 2012 में अचानक गंभीर रूप से बीमार होकर कोमा में चले जाने की वजह से वे अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं कर पाए थे, लेकिन उन्होंने अपने छोटे भाई खुजेमा क़ुतुबुद्दीन को माजूम यानी अपना नायब बहुत पहले ही नियुक्त कर दिया था.
खुजेमा क़ुतुबुद्दीन के छोटे बेटे अब्दुल अली के मुताबिक़ डॉ. मोहम्मद बुरहानुद्दीन ने 1965 में सैय्यदना का पद संभालने के महज़ 28 दिन बाद ही अपने भाई खुजेमा क़ुतुबुद्दीन को अपना माजूम नियुक्त कर दिया था. बताया जाता है कि अगर सैय्यदना औपचारिक तौर अपने उत्तराधिकारी के नाम का ऐलान किए बग़ैर ही इंतक़ाल फ़रमा जाते हैं तो ऐसी स्थिति में उनके माजूम को ही अगला सैय्यदना मान लिया जाता है लेकिन फ़रवरी 2014 में 52वें सैय्यदना डॉ. बुरहानुद्दीन की मौत के बाद ऐसा नहीं हुआ. उनके बेटे मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन ने अपने चाचा के दावे को नज़रअंदाज़ कर अपने पिता का उत्तराधिकार संभालते हुए ख़ुद को 53वां सैय्यदना घोषित कर दिया.

दूसरी ओर खुजेमा क़ुतुबुद्दीन ने भी 52वें सैय्यदना का माजूम होने के नाते अपने को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी बताते हुए 53वां सैय्यदना घोषित कर दिया तथा जून 2014 में अपने भतीजे के दावे को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दे दी.
अदालत के बार-बार नोटिस जारी करने के बावजूद मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन अदालत में हाज़िर नहीं हुए. यह मुक़दमा जारी रहने के दौरान ही 30 मार्च 2016 को खुजेमा क़ुतुबुद्दीन का निधन हो गया चूंकि उन्होंने अपने निधन से पहले ही अपने बेटे ताहिर फ़ख़रुद्दीन को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, लिहाज़ा ताहिर फ़ख़रुद्दीन ने उनकी जगह संभाल ली और उन्होंने ख़ुद को 54वां सैय्यदना घोषित कर दिया.
अपने चाचा के निधन के तुरंत बाद मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन ने अपने वकील के माध्यम से अदालत से अनुरोध किया कि चूंकि अब खुजेमा क़ुतुबुद्दीन की मौत हो गई है, लिहाज़ा यह मुक़दमा ख़ारिज कर दिया जाए.
इस पर ताहिर फ़ख़रुद्दीन ने आपत्ति की. अदालत ने उनकी आपत्ति स्वीकार करते हुए मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन की अपील को ख़ारिज कर दिया और आदेश दिया कि मुक़दमा जारी रहेगा.

देसी विदेशी अनुयायी

बताया जाता है कि ताह़िर सैफ़ुद्दीन को भारतीय बोहराओं में तो उतना समर्थन नहीं है लेकिन अमरीका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, मिस्र, सऊदी अरब आदि देशों में बसे दाऊदी बोहरा मुसलमानों का एक तबक़ा उन्हें ही अपना 54वां सैय्यदना मानता है.
अब्दुल अली को भरोसा है कि भले ही भारत के दाऊदी बोहराओं का बहुमत अभी मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन को अपना सैय्यदना मानता हो लेकिन अदालत उनके भाई ताहिर फ़ख़रुद्दीन के दावे को ही स्वीकार करेगी, क्योंकि हमारा पक्ष बहुत मज़बूत और न्यायसंगत है.

छोटी बच्चियों के ख़तना का मामला
52वें सैय्यदना के उत्तराधिकार के मुक़दमे के अलावा मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन को सुप्रीम कोर्ट में भी एक गंभीर मुक़दमे का सामना करना पड़ रहा है. यह मुक़दमा है दाऊदी बोहरा समुदाय में छोटी बच्चियों का ख़तना (फ़ीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन) से संबंधित.
दाऊदी बोहरा समुदाय में धर्म के नाम पर लंबे समय से चली आ रही इस रवायत को अमानवीय बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.
दाऊदी बोहरा समुदाय धर्मगुरू के आदेश से जारी इस परंपरा पर इस समुदाय के ही सुधारवादी वर्ग से जुडीं पुणे निवासी मासूमा रानलवी कहती हैं कि क़ुरान या हदीस में इस तरह की किसी परंपरा का ज़िक्र नहीं है.
मासूमा कहती हैं, “यह बेहद अमानवीय रवायत है, इसे अमरीका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में अपराध घोषित किया जा चुका है. ऑस्ट्रेलिया में तो इस सिलसिले में जोर जबर्दस्ती करने के आरोप में वहां के आमिल सैय्यदना के प्रतिनिधि को जेल भी भेजा जा चुका है. इसी तरह अमरीका में भी बच्चियों का ख़तना करने वाले एक डॉक्टर को भी जेल की हवा खानी पड़ी है.” केंद्र सरकार ख़तना के पक्ष में नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दायर जनहित याचिका पर सैय्यदना के साथ ही केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी कर उनका पक्ष जानना चाहा है, हालांकि केंद्र सरकार ने अपने जवाब में सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह इस तरह की परंपरा के पक्ष में नहीं है, लेकिन बोहरा समुदाय के धर्मगुरू वर्ग को अभी भी भरोसा है कि केंद्र सरकार अपने रुख़ में बदलाव कर लेगी.
अपने को 54वां सैय्यदना बताने वाले ताहिर फ़ख़रुद्दीन के छोटे भाई अब्दुल अली इस मामले में कहते हैं, ‘बच्चियों का खतना’ कोई धार्मिक परंपरा नहीं है, हमारा मानना है कि 18 वर्ष तक की बच्चियों का ख़तना तो किसी भी सूरत में होना ही नहीं चाहिए और 18 वर्ष की उम्र के बाद यह व्यक्ति की मर्ज़ी पर निर्भर होना चाहिए.”

सैय्यदना का सामाजिक-धार्मिक तंत्र

देश-विदेश में जहां-जहां भी बोहरा धर्मावलंबी बसे हैं, वहां सैय्यदना की ओर से अपने दूत नियुक्त किए जाते हैं, जिन्हें आमिल कहा जाता है. ये आमिल ही सैय्यदना के फ़रमान को अपने समुदाय के लोगों तक पहुंचाते हैं और उस पर अमल भी कराते हैं.
स्थानीय स्तर पर सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों पर भी इन आमिलों का ही नियंत्रण रहता है. एक निश्चित अवधि के बाद इन आमिलों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला भी होता रहता है.
बोहरा धर्मगुरू सैय्यदना की बनाई हुई व्यवस्था के मुताबिक़ बोहरा समुदाय में हर सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और व्यावसायिक कार्य के लिए सैय्यदना की रज़ा (अनुमति) अनिवार्य होती है और यह अनुमति हासिल करने के लिए निर्धारित शुल्क चुकाना होता है.
शादी-ब्याह, बच्चे का नामकरण, विदेश यात्रा, हज, नए कारोबार की शुरुआत, मृतक परिजन का अंतिम संस्कार आदि सभी कुछ सैय्यदना की अनुमति से और निर्धारित शुल्क चुकाने के बाद ही संभव हो पाता है.
यही नहीं, सैय्यदना के दीदार करने और उनका हाथ अपने सिर पर रखवाने और उनके हाथ चूमने (बोसा लेने) का भी काफ़ी बडा शुल्क सैय्यदना के अनुयायियों को चुकाना होता है. इसके अलावा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वार्षिक आमदनी का एक निश्चित हिस्सा दान के रूप में देना होता है.
आमिलों के माध्यम से इकट्ठा किया गया यह सारा पैसा सैय्यदना के ख़ज़ाने में जमा होता है.

बेहिसाब दौलत के मालिक हैं सैय्यदना

दाई-अल-मुतलक़ यानी सैय्यदना दाऊदी बोहरों के सर्वोच्च आध्यात्मिक धर्मगुरू ही नहीं बल्कि समुदाय के तमाम सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और पारमार्थिक ट्रस्टों के मुख्य ट्रस्टी भी होते हैं. इन्हीं ट्रस्टों के ज़रिए समुदाय की तमाम मस्जिदों, मुसाफ़िरख़ानों, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, दरगाहों और क़ब्रिस्तानों का प्रबंधन और नियंत्रण होता है.
इन ट्रस्टों की कुल संपत्ति पचास हज़ार करोड़ रुपए से अधिक की बताई जाती है. बोहरा समाज के सुधारवादी आंदोलन से जुडे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन ट्रस्टों के आय-व्यय तथा समाज के लोगों से अलग-अलग तरीक़े से जुटाए गए धन का कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा समाज के लोगों के सामने पेश नहीं किया जाता. जबकि सैय्यदना के समर्थकों का दावा है कि इस पैसे का इस्तेमाल शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों के संचालन तथा अन्य पारमार्थिक कार्यों में ख़र्च किया जाता है.
सैय्यदना की बनाई हुई व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या उसके परिवार की बराअत (सामाजिक बहिष्कार) का फ़रमान सैय्यदना की ओर से जारी कर दिया जाता है. सैय्यदना के आदेश के मुताबिक़ समाज से बहिष्कृत व्यक्ति या परिवार से समाज का कोई भी व्यक्ति किसी भी स्तर पर संबंध नहीं रख सकता.
बहिष्कृत व्यक्ति अपने परिवार में या समाज में न तो किसी शादी में शरीक हो सकता है और न ही किसी मय्यत (शवयात्रा) में. बहिष्कृत परिवार में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके शव को बोहरा समुदाय के क़ब्रिस्तान में दफ़नाने भी नहीं दिया जाता.

आईटीएस कार्ड यानी
समानांतर आधार कार्ड पिछले कुछ वर्षों से सैय्यदना के आदेश पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति (नवजात बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक) का परिचय पत्र तैयार किया जाने लगा है. आधार कार्ड की तर्ज़ पर कंप्यूटर से बनाए जाने वाले इस आईटीएस (इदारतुल तारीफ़ अल शख्सी) कार्ड के ज़रिए ही हर व्यक्ति समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफिरख़ाना, क़ब्रिस्तान आदि स्थानों पर प्रवेश कर सकता है.
इस कार्ड के ज़रिए एक तरह से समाज के हर व्यक्ति की हर सामाजिक गतिविधि की निगरानी की व्यवस्था की गई है. जिस किसी भी व्यक्ति की कोई भी गतिविधि धर्मगुरू वर्ग की कसौटी पर ज़रा भी संदेहास्पद पाई जाती है, उसका आईटीएस कार्ड ब्लाक कर दिया जाता है. कार्ड ब्लॉक हो जाने पर उस व्यक्ति का समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफ़िरख़ाना क़ब्रिस्तान आदि जगहों पर प्रवेश स्वत: ही निषिद्ध हो जाता है.
सैय्यदना की ओर से यह किसी व्यक्ति के सामाजिक बहिष्कार की आधुनिक व्यवस्था ईजाद की गई. उदयपुर, मुंबई, पुणे, सूरत, गोधरा आदि शहरों में सैकडों बोहरा परिवार इस समय सामाजिक बहिष्कार के शिकार हैं.

सुधारवादी बोहरा आंदोलन का इतिहास और वर्तमान

दरअसल, दाऊदी बोहरा समुदाय में सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत 1960 के दशक में नौमान अली कांट्रेक्टर ने की थी. उनके दौर में तो यह आंदोलन ज्यादा ज़ोर नहीं पकड़ पाया, लेकिन उनके निधन के बाद जब इस आंदोलन की कमान 1980 के दशक में डॉ. असग़र अली इंजीनियर ने संभाली तो इस आंदोलन का तेज़ी से विस्तार हुआ.
इंजीनियर ने उन सभी देशों का दौरा किया, जहां-जहां दाऊदी बोहरे बसे हैं. यही नहीं, उन्होंने देश के कई जाने-माने बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पूर्व न्यायाधीशों, लेखकों और कलाकारों को भी अपने आंदोलन से जोड़ा लेकिन उनकी मौत के बाद आंदोलन ठंढा पड़ गया.

दाऊदी बोहरा के बारे में ये भी जानिए

बोहरा’ गुजराती शब्द ‘वहौराउ’ अर्थात ‘व्यापार’ का अपभ्रंश है, यह समुदाय मुस्ताली मत का हिस्सा है, जो 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में आया था.
1539 के बाद जब भारत में इस समुदाय का विस्तार हो गया तो ये लोग अपना मुख्यालय यमन से भारत के सिद्धपुर (गुजरात) में ले आए. 1588 में 30वें सैय्यदना की मृत्यु के बाद उनके वंशज दाऊद बिन कुतुब शाह और सुलेमान शाह के बीच सैय्यदना की पदवी और गद्दी पर दावेदारी को लेकर मतभेद हो गया, जिससे दो मत क़ायम हो गए और दोनों के अनुयायियों में भी विभाजन हो गया.
दाऊद बिन कुतुब शाह को मानने वाले दाऊदी बोहरा और सुलेमान को मानने वाले सुलेमानी बोहरा कहलाने लगे, सुलेमानी बोहरा संख्या में दाऊदी बोहरों के मुक़ाबले बेहद कम थे और उनके प्रमुख धर्मगुरू ने कुछ समय बाद अपना मुख्यालय यमन में क़ायम कर लिया और दाऊदी बोहरों के धर्मगुरू का मुख्यालय मुंबई में क़ायम हो गया.
बताया जाता है कि दाऊदी बोहरों के 46वें धर्मगुरू के समय इस समुदाय में भी विभाजन हुआ तथा दो अन्य शाखाएं क़ायम हो गईं. इस समय भारत में बोहरा समुदाय की कुल आबादी लगभग 20 लाख है, जिसमें 12 लाख से ज्यादा दाऊदी बोहरा हैं, तथा शेष आठ लाख में अन्य शाखाओं के बोहरा शामिल हैं.
दो मतों में विभाजित होने के बावजूद दाऊदी और सुलेमानी बोहरों के धार्मिक सिद्धांतों में कोई ख़ास बुनियादी फ़र्क़ नहीं है. दोनों समुदाय सूफियों और मज़ारों पर ख़ास आस्था रखते हैं.
सुलेमानी जिन्हें सुन्नी बोहरा भी कहा जाता हैं, हनफी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं, जबकि दाऊदी बोहरा समुदाय इस्माइली शिया समुदाय का उप-समुदाय हैं और दाईम-उल-इस्लाम के क़ायदों को अमल में लाता है.
यह समुदाय अपनी प्राचीन परंपराओं से जुड़ा समुदाय है, जिनमें सिर्फ़ अपने ही समुदाय में शादी करना भी शामिल है. कई हिंदू प्रथाओं को भी इनके सामाजिक व्यवहार में देखा जा सकता है.
भारत में दाऊदी बोहरा मुख्यत: गुजरात में सूरत, अहमदाबाद, बडोदरा, जामनगर, राजकोट, नवसारी, दाहोद, गोधरा, महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, नागपुर औरंगाबाद, राजस्थान में उदयपुर, भीलवाड़ा, मध्य प्रदेश में इंदौर, बुरहानपुर, उज्जैन, शाजापुर के अलावा कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, और हैदराबाद जैसे महानगरों में भी बसे हैं.
पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अलावा ब्रिटेन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, दुबई, मिस्र, इराक़, यमन व सऊदी अरब में भी उनकी ख़ासी ता दाद है.

 

 

स्रोत : BBC News

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