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Thoughts : दारुल क़ज़ा या कॉउंसलिंग सेंटर ? पढें- ई० इमरान लतीफ का यह लेख

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प्रभाव इंडिया

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक कदम ने सियासी और मीडिया जगत में हलचल मचा रखी है।
इस पूरे मामले में दो पक्ष नज़र आ रहे हैं। एक पक्ष मीडिया जगत और अधिकांश सियासी जगत के लोग हैं जो दारुल क़ज़ा को शरीया कोर्ट के रूप में परिभाषित रहे हैं जबकि बोर्ड के लोग ऐसे किसी पहलू से सिरे से इनकार कर रहे हैं।

बोर्ड की इस पहल पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों की मंशा इस वजह से संदेहास्पद लगती है क्योंकि जितनी तत्परता से ये दारुल क़ज़ा का विरोध कर रहे हैं उतनी ऊर्जा उन्होंने धर्म संसद, धर्म रक्षा मंच जैसे अनेकों संस्थाओं के विरुद्ध कभी नही लगाई।

बकौल आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में दारुल क़ज़ा शरिया कोर्ट क़त्तई नही है और यह संस्था किसी भी प्रकार से देश के संविधान और न्यायालय से ऊपर निर्णय लेने या उनका उल्लंघन करने के लिए वजूद में नही लाई गई है। बल्कि यह एक तरह से उस कॉउंसलिंग सेन्टर की तरह काम करेगा जो मुस्लिम समुदाय के आपसी विवाद को देश के किसी भी न्यायालय में जाने से पहले ही निस्तारित करने का प्रयास करेगा। सज़ा देने का काम आज भी न्यायालय का है और कल भी उन्हीं का होगा।

लेकिन हां मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा लोकसभा चुनाव से पहले जिस समय इस पहल का आग़ाज़ किया गया है उस पर सवाल उठना वाजिब है क्योंकि सबको पता है कि देश मे इन दिनों अफवाह तंत्र सक्रीयता के चरम पे है। सीरिया और पाकिस्तान की वीडियो दिखाकर अफवाह तंत्र भीड़तंत्र से किसी भी बेगुनाह की हत्या करवा दे रहा है, ऐसे समय में ऐसा फैसला लेने से पहले सोचना अवश्य चाहिए था। ऐसे वक्त में भाजपा और संघ के लोग राजनैतिक लाभ लेने में कोई कोर कसर नही छोड़ेंगे।
दूसरी बात ये भी है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की आम मुस्लिम आवाम में कितनी पकड़ है ये भी तय नही है। ऐसे में उनकी इस पहल को कितने प्रतिशत मुस्लिम अमल में लाएंगे कुछ नही कहा जा सकता है। जहां तक मै समझता हूँ कि ज़मीनी स्तर पर आम मुसलमानो के बीच ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की नुमाइंदगी करने वाला कोई नही होता। ऐसे में मुसलमानो के बीच ही ऐसे मामलों को लेकर बड़ी असमंजस की स्थिति होती है, जैसा कि इस मामले को लेकर भी है। दारुल क़ज़ा जैसे मामलों का सही पक्ष देश की जनता के सामने तभी आ सकता था जब इसकी शुरुआत से पहले देश की जनता को इससे अवगत कराया जाता और फिर उन्हें जागरूक किया जाता। इसके लिए प्रशिक्षित वालंटियर्स की आवश्यकता पड़ती है जो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास हैं ही नहीं।
बिना तैयारी के पहल करने का नतीजा सामने है आज दारुल क़ज़ा का सही पक्ष जनता के सामने पहुंच भी नही पाया लेकिन शरीया कोर्ट के रूप में घर घर तक दुष्प्रचार हो गया।
कुछ भी हो लोकसभा चुनाव से ठीक पहले (सही समय का चयन न करके) तथा अधकचरी तैयारियो के साथ दारुल क़ज़ा जैसी व्यवस्था को पेश करके ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने न सिर्फ अपनी किरकिरी कराई बल्कि देश की नफ़रत पसंद ताक़तों को तुष्टीकरण की राजनीति के लिए बढ़िया मसाला भी दे दिया है। अब दिख भी रहा है कि पूरे मामले को लेकर भारतीय जनता पार्टी और गोदी मीडिया किस तरह से नँगा नाच कर रहे हैं। जिसका डैमेज कंट्रोल भी इतना आसान नही होगा क्योंकि इसके लिए बोर्ड के पास कोई योजना भी नही है।

ऐसे किसी भी निर्णय से पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को जन-जागरूकता अवश्य फैलानी चाहिए तथा देश के जो भी दल सेक्युलर राजनीति का दम भरते हैं उनको ऐसे निर्णयों के सही पक्ष से पहले ही अवगत करा देना चाहिए, ताकि वे भी समय आने पर आनाकानी न कर सकें और अगर करे भी तो उनका चेहरा फिर से उजागिर हो।

( लेखक, समजसेवी और आम आदमी पार्टी से जुड़े हुए हैं, यह उनके अपने विचार हैं )

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