आलोचना के शौक से ही बुद्धिजीवी नहीं बना जा सकता है : अभिषेक यादव, पढ़ें पूरा ब्लाॅग
May 23, 2017 3:35 am
कुछ लोग स्वयं में इतने बड़े तुर्रम खान होते हैं कि उनके आगे साक्षात ब्रह्मा भी आ जाएं तो ये लोग उनकी भी आंखें खोलने का दम भरेंगे। बड़े दिनों से लिखना चाहता था लेकिन समय के अभाव में संभव नहीं हो सका। देख रहा हूं तमाशा विधानसभा चुनावों के पहले से। जिनसे अपनी पैंट नहीं संभल पाती है वो देश के सबसे बड़े राजनैतिक परिवार को संभालने की सलाह देते हैं। जिनकी बात उनकी पत्नी तक नहीं सुनती वो इसलिए परेशान हैं कि अखिलेश जी गलत लोगों की बात सुनते हैं। तमाम आलोचनाएं। बेसिर पैर की। गैंग के नाम और गैंगस्टर की भूमिका तय की जा रही है। जवानी दीवानी गैंग, जवानी कुर्बानी गैंग और पता नहीं क्या क्या। सबकी अपनी-अपनी सिनेमा। सब उसके हीरो। हमें भाव दिया होता तो हम ये उखाड़ लेते, चांद पर धान बो देते। अरे बंद करो तमाशा। तुम सबको जानता हूं। तुम्हारी परेशानी की वजह भी पहचानता हूं। जरा सोचो हीरो बहादुर लोग कि विलेन किसको बना रहे हो अपनी छटपटाहट में। आलम ये है आत्ममुग्धता का कि अपनी बात सही साबित करने करने के लिए विरोधियों को सही साबित किया जा रहा है। मीडिया और भाजपा को क्लीन चिट दी जा रही है। अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को निराशा का शिकार बताया जा रहा है। अरे शर्म करो। आलोचक बनने के शौक और बुद्धिजीवि साबित होने की भूख में किसी को नहीं बख्शोगे ? सब ग़लत हैं एक तुम सही हो ? कहते हो कि गैंग वालों ने हरा दिया। तुम अपने प्रयास बताओ फेसबुक के क्रांतिकारियों। अब जब हार गए तब भी नंगा नाच बंद नहीं कर पा रहे हो। क्या मकसद है ? दोनों पटरियों पर एक साथ चलने का अभ्यास तो नहीं कर रहे हो ? न करना बंधु। मुंह की खानी पड़ेगी। दुम कटा के उनमें शामिल नहीं हो सकोगे। इसलिए अपनों को गाली देना बंद करो। हम सरकार की नाकामी पर सवाल करते हैं तो हमें हताश बताते थे। अब जब ये ही सवाल अरबों रुपए का च्यवनप्राश चबा कर भी मीडिया को मजबूरी में दबी आवाज में उठाना पड़ रहा है तो उनके सुर में सुर मिला रहे हो। सच तो ये है कि हताश तुम हो। हर किसी को ज्ञान बांचना छोड़ कर आओ साथ में काम करते हैं। लोगों को जोड़ते हैं। इसी में सबका भला है। तुम्हारा भी।
( लेखक सामाजिक एवं शैक्षिक मामलों के जानकार है, समाजवावादी विचारक हैं, ये उनके विचार हैं )