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राजनीति का विकास
October 27, 2016 6:19 am
अनूप के त्रिपाठी
वर्तमान राजनीति की एक त्रासदी यह है कि इसके सरोकार बहुत हद तक सिनेमा के सरोकारों जैसे हो गए हैं।सिनेमा को लेके एक सवाल किया जाता है कि क्या सिनेमा समाज की प्रवृत्तियों को दर्शाता है या समाज सिनेमा की प्रवृत्तियों से प्रभावित होता है? जवाब ‘हाँ’ या ‘नहीं’ का नहीं है। दरअसल समाज कई स्तरों में बँटा हुआ है,यह एक समांगी इकाई नहीं है।वास्तव में सिनेमा समाज के कई स्तरों व उनकी जीवनशैलियों के बीच एक मूक संवाद का माध्यम बन जाती है,एक रिले सेंटर की तरह।एक स्तर की जीवनशैली व उसकी अपेक्षाओं को दूसरे स्तर पर जी रहा व्यक्ति देखता-सुनता है व प्रभावित होता व करता है।
राजनीति भी बहुत हद तक सिनेमा की तरह एक रिले सेंटर बन गई है,एक मंच मात्र।पिछले कुछ वर्षों में ‘सिर्फ विकास व गवर्नेंस’ के नाम पर वोट मांगने व इस आधार पर पूर्ण बहुमत की सरकारें बना ले जाने की जो प्रवृत्तियाँ उभरी हैं वह समाज के समग्र दृष्टिकोण से चिंताजनक है।विकास की रोशनी चकाचौंध भरी होती है,ये चकाचौंध समाज के अधिकांश हिस्से को अंधा बना देने के लिए काफी है और इसी अंधकार में पीछे से ‘मूल एजेंडे’ को पूरा करने की रूपरेखा तैयार की जाती है। विकास व गवर्नेंस समाज के एक हिस्से की जरूरत,आकांक्षा व अपेक्षा है..उस हिस्से की जिसकी आवाज पहले से ही ज्यादा बुलंद व कर्कश है।उनको ‘फीड’ करने के लिए विकास के सब्जबाग की रूपरेखा तैयार की जाती है क्योंकि उनके बुलंद आवाज का उपयोग सरकार की कामयाबी का प्रचार करने में किया जाना होता है। पर इसी रस्साकशी में समाज के दूसरे अलग-अलग स्तरों पर जी रहे समूहों के सरोकार कहीं बहुत पीछे छूट जाते हैं।धर्म,जाति,साम्प्रदायिक विद्वेष,क्षेत्रवाद,असमान शिक्षा,लिंगभेद,दहेज आदि की प्रवृत्तियाँ पहले से भी कहीं अधिक भयावह हैं। विकास की आँधी बहाकर वोट माँगने की जो प्रवृत्ति उभरी है उसमें समाज के कमजोर व उपेक्षित तबके के सरोकार उसी आँधी में उड़ भी जाते हैं।’सिर्फ विकास’ ही सबकी जरूरत नहीं है।राजनीति समाजनीति पर हावी है।विकास की चकाचौंध से लोगों को अंधा बनाकर अंधेरे में अपने ‘मूल एजेंडे’ को पूरा करने का प्रयास खतरनाक है। उपेक्षित व कमजोर वर्गों के सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर बोलने व काम करने वाले लोग हाशिए पर हैं।ग्रामीण राजनीति आज थाने,तहसील,ब्लाॅक पर पैरवी करने-कराने व ठेका-पट्टा हथियाने की कशमकश में उलझ कर रह गई हैदशकों से शोषित,गरीब,पिछड़े,दलित,महिलाएँ,विकलांग,छात्र आदि के वास्तविक सरोकार गायब हैं और राजनीति बस सिनेमा की तरह एक स्तर की अपेक्षाएँ व महत्वाकांक्षाएँ दूसरे स्तर के लोगों को रिले कर देने की भूमिका में व्यस्त है…समाधान साधारण है..।वास्तविक सरोकारों पर ध्यान देने की आवश्यक्ता पहले से भी कहीं अधिक है…यदि सम्पन्नता के साथ साथ सरोकारी समानता पर भी आवाज उठा सकें तो शक्ति के साथ सत्ता की भी प्रकृति स्थायी रूप में बनायी जा सकती है।
(लेखक सामाजिक और राजनैतिक मामलो के जानकार है|यह उनके निजी विचार है)