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व्यक्तिवाद के साये में समाजवाद

अनूप के त्रिपाठी

‘व्यक्तिवाद’ समाजवाद का सबसे बड़ा शत्रु है।राजनीति में विरासत और प्रतीकों का महत्वपूर्ण स्थान होता है,पर विरासत का सेहरा किसके सर बंधे,इसका उत्तर उन मूल्यों,आदर्शों,सिद्धांतों और संघर्षों को आगे बढ़ाने की योग्यता के आधार पर निकाला जाना चाहिए, साथ ही इस योग्यता का पैमाना उस अधिकारी के स्वयं की जीवन प्रवृत्तियों को होना चाहिए ना कि उसके साथ की भीड़ को…क्योंकि विरासत की भीड़ के छिटकते समय नहीं लगता।..समाजवादी सभ्यता का आधार त्याग है,उपलब्धि नहीं और समाजवादी सभ्यता के बिना समाजवादी समाज के निर्माण की कल्पना भी मूर्खता है|समाजवाद,विशेष तौर पर भारतीय समाजवाद,की एक त्रासदी यह रही है कि इसका स्वरुप राष्ट्रवाद और साम्यवाद जैसी अन्य विचारधाराओं की तरह संस्थागत नहीं बन पाया।ख़ैर, कहीं तो यह एक खासियत के रूप में समाजवाद की खूबी बताती है तो कभी-कभी यह एक गंभीर खामी महसूस होती है,जो समाजवाद के सरोकारों को क्षति भी पहुंचा रही है।
‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की विचारधारा से असहमति ज़रूर रखी जा सकती है पर उनकी संगठनात्मक कुशलता और संगठित स्वरुप तारीफ़ योग्य है।उनके संगठनात्मक स्वरुप के स्थायित्व के पीछे सीधी वजह है-व्यक्ति नहीं विचारधारा प्रधान है।किसी भी विचारधारा के सरोकारों के लिहाज से व्यक्तिवाद,समय और सोच की व्यापकता के पैमाने पर नुकसानदेह होता है।’संघ’ को 2 बार भारत पर शासन करने का मौका मिला और दोनों ही बार सरकार की शक्तियों के विभाजन को बहुत ही समझदारी से संगठन और सरकार के सीमारेखा पर बाँट दिया गया।एक चेहरा जनप्रियता का और दूसरा संगठनात्मक कुशलता का,पर ख़ास बात यह कि विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली पैरेंट संस्था दोनों से बड़ी।सरकार और संगठन के स्तर पर शक्ति-विभाजन तभी सुचारू रूप से चल सकता है जब विचारधारा का संगठित स्वरुप का नियंत्रण दोनों पर हो।भाजपा में यह विभाजन कभी अटल-आडवाणी के रूप में दिखा तो कभी मोदी-शाह में दिख रहा है पर पिछली गलती से सबक लेकर इस बार संगठन का काम देख रहे शाह को सरकार में सहभागिता से पूरी तरह मुक्त रखा गया है जिससे आडवाणी की तरह राजनीतिक महत्वाकांक्षा भविष्य में समस्या ना पैदा करे।दुसरे यह बिलकुल स्पष्ट है कि विचारधारा का काम देख रही पितृ संस्था का नियंत्रण दोनों पर है-सन्देश बिल्कुक साफ़ कि विचारधारा के सरोकार सबसे ऊपर हैं।
समाजवादी पार्टी में सरकार और संगठन के शक्ति विभाजन की प्रक्रिया में अखिलेश-शिवपाल के बीच यदि बंटवारा करवाने का प्रस्ताव हो ही तो भी इस व्यवस्था के बाकी अनिवार्य शर्तों और प्रावधानों पर भी साथ ही विचार किया जाना आवश्यक है।इसके अभाव में ऐसा कोई भी प्रयास स्थायी स्वभाव का नहीं हो सकता।मुद्दा यहाँ सिर्फ अखिलेश-शिवपाल या समाजवादी पार्टी के शक्ति-संतुलन का नहीं है,मुद्दा समाजवाद के भविष्य और स्वरुप का भी है।सरकार और संगठन में शक्ति-संतुलन एक अनिवार्य सच्चाई है।नेता जी के समय में जनेश्वर जी,बृजभूषण जी,कपिलदेव सिंह जी,रामशरण दास जी जैसे समाजवाद के प्रति समर्पित लोगों का ओज इस संतुलन को साध लेता था पर विचारधारा के स्तर पर कमजोरी संगठनात्मक ढाँचे में टकराव की अनिवार्यता दर्शाती है। समाजवादी पार्टी में उठे वर्तमान विवाद के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त तथ्यों के साये में ही कोई स्थायी समाधान निकाला जा सकता है।समाजवाद का स्थान समाजवादी पार्टी और पार्टी के बड़े चेहरों से भी बड़ा माना जाना चाहिए तभी समाजवाद के चेहरे के रूप में समाजवादी पार्टी की स्वीकार्यता आमजन में अविवादित रूप से स्थापित करी जा सकती है।

(लेखक राजनैतिक और सामजिक मामलो के जानकार है,यह उनके निजी विचार है)

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